तराशा है तुम्हें
खुद उस ख़ुदा
ने,
या हो तुम परी....या कोई हूर |
है तुमसे ही
धड़कन इस दिल की, और
तुम्ही से इन आँखों का
नूर;
मर ही मिटा
तुमपर,
तो इस दिल का क्या क़सूर
|
के इस दिल ने ही दिखाई अंधेरों
में ,
नज़रों को राहें तमाम
हैं;
माना हुई है इससे ख़ता,
पर क़ुबूल हमें
भी ये ख़ूबसूरत
इल्ज़ाम है |
न जाने हुआ
ये कैसे , के एक ही झलक में दिल-ओ-जान
गवाँ बैठे;
अजनबी हुए ख़ुद
से, और उन्हे
भगवान बना बैठे
|
जादू चला उनका
कुछ इस तरह
, के हम...रहे नहीं हम;
पर मिल जाए
उनका साथ अगर, तो ख़ुद को
खोने का भी नही ग़म
|
के इस बेखुदी
में जो मज़ा
है, वो होश
में आने में
कहाँ ;
उनकी नज़रों में
अपनी तस्वीर सा
नशा ,
किसी पैमाने में कहाँ |
बयाँ करूँ भी
तो
कैसे, के बीते
कैसे बरसों... इन नज़रों की
तलाश में;
ज़िंदा होने के
इल्ज़ाम तले , चल रही थी साँसें
...ज़िंदगी की आस में |
ज़िंदगी की तपती
धूप में , राहत...शाम
में हमने पाई
है;
गुज़र गये वो झुलस्ते मंज़र,
के जीवन में
शब लौट आई है|
ख्वाबों के इस वीराने
में , क्या खूब
हरियाली छाई है;
के ढूंड रहे थे हम अल्फाज़ों को, और...खुद
ग़ज़ल ही चली आई है |
के बयान हो कैसे
इन लफ़्ज़ों में, जो शख्सियत
ही ख़ुदाया है;
याकता वो
हीर,
जिसने इस
दिल को सजाया
है |
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